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भारत में किसान आंदोलन : किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए इन चार मानकों पर काम करने की ज़रुरत ; UPDATED





कुमार विवेक
भारत  में  बीते ४१ दिनों से जारी किसान आंदोलन के बीच  सरकार और किसानों के बीच आठ दौर की बातचीत हो चुकी है। पर अबतक कोई ठोस नतीजा  नतीजा नहीं निकल पाया। जहाँ किसान  किसान कानून वापसी की मांग पर अड़े हैं वही सरकार भी क़ानून वापस लेने की दिशा में टस से मस नहीं हो रही है.  रहे और MSP को कानूनी रूप देने के मुद्दे पर भी सहमति नहीं बनी। सरकार से बैठक के बाद किसानो का कहना है की  कानून वापसी नहीं तो घर वापसी भी नहीं। वहीँ  कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि ताली तो दोनों हाथ से बजती है। अब सरकार और किसानों के बीच अगली बातचीत 8 जनवरी को होगी। इस आंदोलन का मुकाम चाहे जो भी हो. आइये समझते हैं की भारत में किसानो की मूल समस्या क्या है और इसके निपटारे के लिए क्या कदम उठाये  जा सकते हैं. क्या जिन कानूनों को लेने की मांग किसान सरकार से कर रहे हैं इन कानूनों से वाकई में उनका भला होने वाला है या नहीं. 

बात तीन साल पहले की
 
बीते 11-12 मार्च 2018 को हमने - आपने टीवी पर किसान आंदोलन की जो तसवीरें देखीं वो शहरों की आबादी के लिए चौकाने वाली थी। नासिक से निकला करीब 30 हजार किसानों का जत्था पैदल मुम्बई पहुंचा था। ऑल इंडिया किसान सभा (एआईकेएस) के बैनर तले किसानों का यह समूह कर्जमाफी की मांग को लेकर लंबे समय से आंदोलन पर था. 
किसानों के इस जत्थे ने 5 मार्च को 180 किलोमीटर की यात्रा के लिए सेंट्रल नासिक के सीबीएस चौक से कूच शुरू किया था. हर रोज 30 किलोमीटर पदयात्रा करते ये किसान 12 मार्च को मुंबई में महाराष्ट्र विधानसभा घेरने पहुंचे थे। 
आनन - फानन में सरकार ने मांगे मान लेने का मरहम लगाकर इस मार्च को समाप्त तो करा दिया। पर पावँ में छाले लिए ये किसान जब घर लौट रहे थे तो उन्हें संदेह था कि सरकार द्वारा कुछ मांगे मान लेने से उनके वर्षों से चले आ रहे जख्म भर पाएंगे। 
भारत सरकार के ताज़ा आर्थिक सर्वे के अनुसार देश के किसानों की आमदनी में आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन के कारण 20-25 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। 
 
प्राकृतिक आपदाओं, तापमान में वृद्धि, वर्षा में कमी आदि कारणों ने किसानों की आमदनी को दुगना करने के सरकार के एजेंडे को गहरा धक्का पहुँचाया है। 
हालाँकि अगर मंशा हो तो इस परिस्थिति से अब भी निपटा जा सकता है। बेहतर कृषि प्रबंधन और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर सिंचाई सुविधाओं को बेहतर बनाया जा सकता है। दूरगामी सुधार के लिए यह भी ज़रूरी है कि सरकार कृषि अनुसंधान पर पर्याप्त और उचित बजट का प्रबंध करे। 
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। कृषि क्षेत्र 50 प्रतिशत रोज़गार उपलब्ध कराता है। देश की जीडीपी में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 18 फीसद है। भारत के 80 फीसद से अधिक किसान छोटी जोत वाले हैं, मतलब ऐसे किसान जिनके पास दो एकड़ या उससे कम जमींन है। यहाँ मुख्य रूप से गेहूं , धान, मक्का, गन्ना, दलहन, तिलहन आदि फसलों की खेती होती है। 
पर सिक्के का दूसरा और दुखद पहलु ये है कि भारतीय किसानों के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं हैं । उन्हें ख़राब मौसम, बड़े किसानों और फ़ूड कॉरपोरेशनों से प्रतियोगिता, न्यूनतम बाजार मूल्य में कमी जैसी समस्याओं से हर सीजन रुबरु होना पड़ता है। 
छोटे किसान परिवेश, बाज़ार और आर्थिक दवाब के चपेट में रहते हैं । विश्व की कुल भूखी आबादी के 25 प्रतिशत लोग भारत में रहते हैं। इससे तनाव पैदा होता है और परिणाम किसानों के आत्महत्या के रूप में सामने आता है। पिछले तीन दशकों में 60,000 से अधिक किसान आत्महत्या के मामले सामने आ चुके हैं। 
इन परिस्थितियों में मौसम, तापमान और वर्षा में हो रहे बदलाव कृषि उत्पादों और एक बड़ी आबादी पर बड़ा प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं । 
जलवायु परिवर्तन 
ताज़ा सरकारी रिपोर्ट में मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार जहाँ देशभर में औसत तापमान साल दर साल बढ़ रहा है वहीँ वर्षा में कमी हो रही है। इन आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों में सबसे गर्म दिनों और सबसे ठन्डे दिनों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। 
औसत से अधिक तापमान के कारण जहाँ 4.7 प्रतिशत फसल बर्बाद हुए वहीँ औसत से बहुत कम तापमान के कारण भी कुल उत्पादन में 12.8 प्रतिशत गिरावट दर्ज हुई। प्रतिकूल मौसम का सबसे अधिक प्रभाव ऐसे इलाक़ों पर पड़ा जहाँ सिंचाई की सुविधाओं का अभाव है। 
कम फसल का मतलब है किसान की कम आमदनी। आर्थिक सर्वे रिपॉर्ट के अनुसार बढ़ते तापमान के कारण किसानों की आमदनी में 4.3 प्रतिशत की गिरावट आयी। वहीं, अतिवृष्टि ने किसानों की आमदनी का 13.7 फीसद लील लिया। 
जिन इलाक़ों में सिंचाई की कमी है वहां यह देखा गया है कि साल में तापमान में 1 डिग्री  वृद्धि से किसानों की आमदनी में अनुमानतः 6.2 फीसद की गिरावट आ जाती है। वहीँ अगर साल में वर्षा का औसत 100मिमी रहता है तो कृषकों की आमद में 15 फीसद की गिरावट दर्ज होती है । 
मौसम के आंकड़ों के गहन अध्ययन से ये उम्मीद की जा रही है कि 21 वीं सदी के उत्तरार्ध तक भारत के औसत तापमान में 3 से 4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जायेगी और ऐसे में आने वाले सालों में असिंचित क्षेत्र के किसानों की आय में 20 से 25 फीसद की कमी आएगी ये लगभग तय है। ऐसे में बदहाल किसान और बदहाल होंगे ये भी तय है। 
पर सरकार अगर समय रहते कुछ ठोस फैसले ले तो निश्चित रूप रूप से परिस्थितियों में बहुत हद तक सुधार संभव है। ऐसे पाँच महत्वपूर्ण मानक हैं जिन पर खर्च कर किसानों को राहत पहुँचाया जा सकता है। इन पर काम किये जाने की तत्काल ज़रुरत है।
1. सिचाई का स्मार्ट प्रबंधन : 
खेती के लिए पानी की कमी और लगातार गिरते भूजल के स्तर को देखते हुए बेहतर जल प्रबंधन के साथ सिंचाई की आधुनिक और स्मार्ट तकनीक पर काम किये जाने की नितान्त आवश्यकता है। हमारे देश के कृषि क्षेत्र का 50 प्रतिशत से अधिक भाग गैर सिंचित है। 
जलवायु परिवर्तन और सिंचाई के समुचित आभाव में कर्णाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड आदि राज्यों को हाल के वर्षों में सबसे बड़ा खामियाज़ा भुगतना पड़ा है। ऐसे में जहाँ - जहाँ सिंचाई के अभाव में फसल प्रभावित होती है ऐसे क्षेत्रों में स्मार्ट सिंचाई तकनीकों जैसे ड्रिप, स्प्रिंकल एवं समुचित जल प्रबंधन की अन्य वैज्ञानिक तकनीकों पर प्राथमिकता के आधार पर काम किये जाने की आवश्यकता है। 
2. तैयार फसल की क्षति में कमी लाना : 
देश में वर्ष में लगभग 13 बिलियन मूल्य के फसल की हानि हो जाती है। साल 2015 में फल तथा सब्जियों के कुल उत्पाद का लगभग 16 प्रतिशत जिनका बाज़ार मूल्य करीब 6 बिलियन डॉलर था, खराब हो गए । सबसे अधिक ख़राब होने वाले कृषि उत्पादों फल तथा सब्जियों की उपज का केवल 2.2 प्रतिशत का ही उपयोग हेतु पैकेजिंग संभव हो पाया। जबकि, कृषि उत्पादों के प्रसंस्करण के मामले में अमरीका 65 प्रतिशत और चीन 23 प्रतिशत हमसे कहीं आगे रहे । 
काम रैयत वाले किसानों का इस कारण सबसे अधिक नुकसान हुआ। उनके लिए आर्थिक रूप से ये संभव नहीं था कि वे अपने तैयार कच्चे फसल को बड़ी और केंद्रीयकृत प्रोसेसिंग यूनिटों तक पहुंचा सकें। लोकल सस्तर पर उनके पास प्रोसेसिंग या भण्डारण की कोई सुविधा नहीं थी, जिसका नतीजा हुआ बड़ा नुकसान। आग में घी का काम किया यातायात की अपर्याप्त व्यवस्था ने। 
खराब रास्तों, बार-बार लोडिंग, अनलोडिंग, और रेफ्रिजरेशन की कमीं के कारण फल और सब्जियों के उत्पादन का बड़ा हिस्सा ख़राब हो गया। 
छोटे किसानों को अपने उत्पादन को बेचने के लिए मध्यस्थों पर निर्भर होना पड़ता है इसका भी खामियाज़ा उन्हें उठाना पड़ता है। कभी कभी इन किसानों को अपनी फसल लागत से भी कम कीमत पर बेचना पड़ता है। 
ऐसे में उस बात की परम आवश्यकता है कि लोकल स्तर पर प्रोसेसिंग, स्मार्ट पैकेजिंग एवं यातायात के साधनों में सुधार के लिए अत्याधुनिक तकनीकों पर जल्द से जल्द काम शुरू हो। 
3. आंकड़ों पर आधारित आपूर्ति प्रबंधन - 
भारतीय कृषि के अब यह ज़रूरी हो गया है की सप्लाई चैन का प्रबंधन आंकड़ों पर आधारित हो। सेंसर्स, जीपीएस, सेटेलाइट इमेजिंग आदि का प्रयोग कर विश्वशनीय सप्लाई चैन से जुड़े विश्वसनीय आंकड़ों का संकलन किया जा सकता है, ऐसा करने से देश के को बहुत हद तक मदद मिल सकती है।
इससे सप्लाई चैन के विभिन्न स्तरों को पर्यावरण और दूसरे कारणों को ध्यान में रखते हुए मॉनिटर करने में भी सहूलियत मिलेगी। इससे फसल की बर्बादी बहुत हद तक कम हो सकेगी। 
4. पर्याप्त फसल बीमा 
जलवायु में अकस्मात् परिवर्तन से किसानों को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए फसल बीमा कार्यक्रम चलाये जाते हैं। ऐसे कई कार्यक्रम वर्तमान में भी चल रहे हैं, दुखद रूप से वे बहुत अपर्याप्त हैं । हालांकि इन दिनों में हमने देखा है कि फसल बीमा के नाम पर कई प्रदेशों में किसानों को 1-1, 2-2 रुपयों का चेक दिया गया है, ये मज़ाक नहीं तो और क्या है? फिलहाल जो फसल बीमा योजनाएं चल रहीं हैं किसानों से अधिक बीमा कंपनियों का फायदा कराती हैं। ऐसे फसल बीमा योजना पर काम कर उसे लागू किये जाने की ज़रुरत है जिसमें कम काम प्रीमियम के भुगतान पर किसानों को अधिक से अधिक कवर मिले । ताकि किसानों का भला हो सके। 
फसलों की पैदावार की दृष्टि से कृषि अनुसंधान का बड़ा महत्व है। कृषि अनुसंधान पर एक नई और इनोवेटिव सोच के साथ काम किये जाने की ज़रुरत है। कृषि अनुसंधान का कार्य केवल फसलों की पैदावार बढ़ाना न होकर जलवायु परिवर्तन और दूसरे कारणों से होने वाले नुकसानों का अध्ययन भी होना चाहिए। 
ये ऐसे मानक है जिनसे फसल की पैदावार और सिंचाई प्रबंधन को बहुत हद तक बेहतर किया जा सकता है। एक और महत्वपूर्ण बात ये की ये सुधार केवल सरकार के भरोसे संभव नहीं। हम सब को मिलकर इस दिशा में कदम बढ़ाने होंगे। इन क़दमों पर अमल से कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कम होगा । इनसे छोटे जोत वाले साधारण किसानों को त्वरित लाभ मिलेगा। उत्पादन बढ़ेगी, आमदनी बढ़ेगी, तो किसान आत्महत्या करने हेतु विवश भी नहीं होंगे। न ही उन्हें किसी के बहकावे में आकर 200 किमी लंबा पैदल मार्च करना पड़ेगा । 

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