यह पढकर आपको लग रहा है कि इसे लिखने वाला शायद पागल हो गया है पंरतु झारखंड में बीते दिनों जिस तरह से एक घटना हुई उससे तो आपको यह पूरा विश्वास हो जायेगा कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया नहीं विज्ञापन है. झारखंड की आठवीं वर्षगांठ पर राज्य सरकार की ओर से 15 नवंबर से 25 नवंबर तक मोरहाबादी मैदान में उधोग मेला लगाया गया था. इसके लिए पूरी तैयारियां भी की कई गई थी. कई बडी कंपनियों के स्टाल भी लगे लोगों की भीड भी काफी उमडी कुल मिलाकर यह मेला पूर्णत सफल रहा. परंतु इस मेले के खत्म होने के बाद भी एक टीस दिल में लगी रही. जब इस मेले की घोषणा के लिए राज्य के उपमुख्यमंत्री सुधीर महतो ने प्रेस कांफ्रेस की थी, जिसमें उन्होंने मेले के बारे मीडिया के माध्यम से जानकारियां दी थी. इसी क्रम में उन्होंने एक सवाल के जवाब में कहा था कि जो इस मेले का बेहतरीन कवरेज करेगा उसे ईनाम दिया जायेगा, वहीं जो खराब या यूं कह लें निगेटिव कवरेज करेगा उसे लाठियां मिलेगी. उन्होंने जब यह बातें कहीं उस समय राज्य के लगभग सभी प्रमुख समाचारपत्र व इलेक्ट्रानिक मीडिया के संवाददाता मौजूद थे. जिसपर सब लोगों ने थोडा ऐतराज जताया था. लेकिन इसका नतीजा कुछ नहीं हुआ. सभी ने उस मेले का कवरेज किया पर किसी ने भी उसके बारे में कोई निगेटिव खबरें छापना तो छोडिये उसके बारे में अगले दिन भी जिक्र नहीं किया. कहते हैं मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होता है. पर इस घटना को देखकर तो यही लगता है कि इस स्तंभ का निर्माण करने वालों ने ही इसे ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोडी. कहने को तो वे अपने अखबार व टीवी चैनलों के नाम के साथ कई बडे बडे स्लोगन बताते हैं लेकिन सब सिर्फ लोगों को लुभाने के लिए हैं न कि उसपर अमल करने के लिए. हालांकि इसके पीछे के कारणों को देखे तो राज्य सरकार के सूचना व प्रसारण विभाग की ओर से दिये जाने वाले विज्ञापन ने अपना काम कर दिया, अब कोई हर दो दिन में इस मेले का विज्ञापन अखबारों को दे तो किस मीडियाकर्मी की और साथ ही निष्पक्ष खबरों का दंभ भरने वाले वरिष्ट पत्रकार या मालिक की यह मजाल है कि वह इस बात का बुरा माने. तब अगर हम यह कहें कि भाई लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया है तो गलत ही होगा न बल्कि यह कहना शत प्रतशित सही होगा कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया नहीं बल्कि इन्हें मिलने वाला विज्ञापन है.
अभिषेक पोद्दार हमेशा की तरह कल रात अपने अखबार के कार्यालय से काम निपटाकर अपने घर गया, जहां हम सभी रूममेट बैठकर रोज की तरह किसी मुद्दे पर बहस कर रहे थे, अचानक मैंने अपने एक साथी से पूछा यार फ्रीलांस रिपोर्टर को हिंदी में क्या कहेंगे उसने कहां स्वतंत्र पत्रकार, तभी तपाक से मेरे मुंह से निकल गया तो हम गुलाम पत्रकार हैं. उसने भी भरे मन से हामी भर दी. फिर क्या था हमसब इसी मुद्दे पर चर्चा करने लगे. दो दिनों पहले बोलहल्ला पर पत्रकारिता के बारे में मैंने जो भडास निकाली थी उसका कारण समझ में आने लगा. आज हकीकत तो यह है कि हम जिस मीडिया घराने से जुड जाते हैं उसके लिए एक गुलाम की भांति काम करने लगते हैं, हम अपनी सोच, अपने विचार और अपनी जिम्मेवारियों को उस मीडिया घराने के पास गिरवी रख देते हैं और सामने वाला व्यक्ति हमें रोबोट की तरह इस्तेमाल करने लगता है, हम उसकी धुन पर कठपुतलियों की तरह नाचना शुरू कर देते हैं. किसी को जलकर मरते देखकर हमारा दिल नहीं पसीजता, किसी की समस्याओं में हमें अपनी टॉप स्टोरी व ब्रेकिंग न्यूज नजर आती है, सच कहें तो शायद हमारी संवेदना ही मर चुकी हैं. शायद आज पूरी की...
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समाचार पत्र में छपी खबर को जनता सही मानती हैं। आज भी समाज मे अखबारो की खबरों का यकीन है कि वह सच्ची है किंतु अब तो विज्ञापन समाचार मे छपने लगे।