बिहार की राजधानी पटना से महज १०० किमी की दुरी पर अवस्थित मुजफ्फरपुर का जिला अस्पताल डॉक्टरों की भीषण कमी से जूझ रहा है.
१६० बेड के इस अस्पताल में रोज़ाना ५०० से ६०० नए मरीज़ आते हैं, अस्पताल के एक अधिकारी के अनुसार यहाँ ४८ फुल टाइम डॉक्टर ५२ नर्सों की सेवा उपलब्ध होनी चाहिए, जबकि उनकी जगह पर अस्पताल में उपलब्ध हैं केवल १२ फुल टाइम डॉक्टर्स, २४ पार्ट टाइम डॉक्टर्स, २८ नर्स. ICU में जहाँ हर वक़्त ४ डॉक्टर होने चाहिए वह केवल एक डॉक्टर के भरोसे चल रहा है. नवजात बच्चों के वार्ड में भी चार डॉक्टरों की जरूरत है, वहां भी एक ही डॉक्टर से काम चलाया जा रहा है.
डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ यह अनुपलब्धता के कारन यह अस्पताल जिले की स्वस्थ अवस्यक्ताओं को पूरा करने में असमर्थ है.
जिले के रतनौली गाँव से आईं मदीना बेगम अपने एक पडोसी को १०४ डिग्री बुखार के साथ अस्पताल लेकर आईं वे बतातीं हैं कि डॉक्टरों के इलाज के नाम पर बस एक स्लाईने के बोतल चढ़ा दी है और कुछ नहीं, कोई और दवा नहीं दी गयी. उन्हें खुद बुखार उतरने के लिए मरीज़ के सर पर रात भर पानी की पट्टियां बदलनी पड़ी.
यह कहानी कमोबेश पुरे बिहार की है. आज़ादी के ७० सालों के बाद बिहार स्वास्थ्य संसाधनों की भीषण कमी से जूझ रहा है. राज्य के ३८ जिलों में से १७ जिलों में एक लाख लोगों पर केवल ३ डॉक्टर ही इलाज के लिए उपलब्ध हैं. सीवान में तो एक लाख मरीज़ पर भयावह रूप से केवल एक ही डॉक्टर उपलब्ध है. सबसे अधिक सेखपुरा में प्रति लाख मरीज़ पर ८ डॉक्टर हैं. अगर इसे भी आधार मन ले तो हर १२५०० मरीज़ पर केवल एक डॉक्टर उपलब्ध है. यहाँ गौर करने योग्य बात यह है की विश्व स्वस्थ्य संगठन (WHO) प्रति एक हज़ार की आबादी पर एक डॉक्टर के अनुसंशा करता है.
ठीक इसी प्रकार शिक्षा के अधिकार क़ानून के तहत प्राथमिक विद्यालयों में हर ३० छात्र पर १ शिक्षक एवं मिडिल स्कूलों में हर ३५ छात्र पर एक शिक्षक का प्रावधान है. बिहार सन्दर्भ में आंकड़े बताते हैं क़ि बिहार में यह अनुपात क्रमसः ४३:१ एवं ९६:१ है. आंकड़े इस बात की तसदीक करते हैं कि बिहार में शिक्षा बद से बदतर क्यों होती जा रही है.
लोग मानते हैं कि २००५ में जब नितीश सत्ता में आये थे तब से अब तक १२ वर्षों में कानून व्यवस्था, बिजली की उपलब्धता एवं सड़कों की कनेक्टिविटी के मामले में कई अभूतपूर्व सुधर हुए हैं. पर अगर बात गरीबों से जुड़े अति महत्वपूर्ण सेवाओं स्वस्थ्य, शिक्षा और भूमि सुधार के क्षेत्र में किये गए कार्यों की करें तो हालात अभी भी बुरे हैं.
विशेषज्ञों की राय में १९९० से पूर्व के सरकारों के समय में इन क्षेत्रों में हुए ख़राब प्रदर्शन को आसानी से समझा और बयां किया जा सकता है. सरकार और शासन में उस समय तथाकथित ऊँची जातियों का बोलबाला था. वे सामाजिक और आर्थिक रूप से इतने सक्षम थे कि राज्य के संसाधनों का अपने हिसाब से दोहन करते थे. उनके बाहुबल का ही नतीजा रहा कि बिहार में भूमि सुधार पर खास ध्यान नहीं दिया जा सका जिससे गरीबों का काफी कुछ भला हो सकता था.
पर ऐसा माना जाता है कि बिहार में १९९० से लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होनी शुरु हुई. पहली बार जनता दल के लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने और गरीबों का मसीहा बनकर उभरे. उनके मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार में पिछड़ी जातियों को खासा राजनीतिक बल मिला। २००५ के चुनाव के बाद परिस्तिथियाँ बदली अति पिछड़ी जातियों का समर्थन नितीश को जबकि सवर्णो का समर्थन बीजेपी मिला. जदयू भाजपा की गठबंधन सरकार बनी.
२०१५ में नितीश ने लालू से फिर हाथ मिला विधानसभा चुनाव लड़ा. इस गठबंधन को गरीबों और पिछड़ों के हितैसी के तौर पर पेश किया गया. पिछड़ी जातियों ने एकजुट होकर इस महागठबंधन का समर्थन किया. इस जीत ने पिछड़ी जातियों को फिर एक नया बल दिया.
पिछले २५ वर्षों से बिहार में पिछड़ी जातियों के नेताओं ने सरकार चलाया है. उन्होंने गरीबों पिछड़ों का आह्वाहन कर सत्ता में अपनी जगह बनाई, वावजूद इसके गरीबों की भलाई से जुड़े क्षेत्रों में सरकारी मशीनरियों का ख़राब प्रदर्शन चौकाने वाला है.
देश के कुछ और राज्यों में भी स्वस्थ्य सेवाओं का हाल बुरा है. वहां पैसे की कमी का रोना रोया जाता है. पर बिहार के मामले में बहुत हद तक ऐसा नहीं है. २००५ के बाद से बिहार क़ि आर्थिक स्थिति लगातार सुधरी है. आद्रि पटना के शैबाल गुप्ता के अनुसार बीते सालों में जैसे जैसे देश की अर्थ व्यवस्था सुधरी है केंद्र से भी अधिक पैसा मिला है. सूबे का बजट २००६-०७ में २८९४४ करोड़ से २०१७-१८ में १. ६ लाख करोड़ का हो गया है. शराबबंदी के बाद रेवेन्यू पर असर पड़ा है पर फिर भी बजट अब सरप्लस है. पैसे की कमी के बावजूद पंजाब में हेल्थ केयर पर पर कैपिटा खर्च ११८९ रूपए है जबकि बिहार में यह मात्रा ८३१ रूपए है.
यहाँ गौर करने वाली बात यह क़ि पंजाब की आबादी बिहार से काफी काम है. पर बढ़ी आबादी का रोना रोकर गरीबों की सरकार गरीबों को उपयुक्त सेवाएं उपलब्ध करने के अपने दायित्व से कतई बच नहीं सकती है.
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