बिहार में किसानों को खेती के नये-नये तकनीकी गुर सिखाने के लिए सरकार राज्य में तीन सौ किसान पाठशालाएं खोलेगी. बिहार क़षि प्रबंधन व प्रसार-प्रशिक्षण संस्थान के निदेशक डॉ आरके सोहाने ने इस बारे में जानकारी दी. उन्होंने बताया कि इन पाठशालाओं में क़षि विशेषज्ञ किसानों को खेती के तरीके बतायेंगे. किसानों को यह बताया जायेगा कि किस मौसम में किस फसल की खेती लाभदायक हो सकती है. उन्होंने बताया कि किसानों को यह जानकारी प्रत्येक सप्ताह दी जायेगी. यह पाठशाला किसानों के घर में ही खोली जायेगी. इसके लिए उस किसान के पास 2.50 एकड जमीन का होना अनिवार्य है. उन्होंने बताया कि क़षि विभाग की ओर से किसानों को राज्य के बाहर भी भेजे जाने की योजना तैयार की गयी है. उन्होंने कहा कि पाठशाला में किसानों को धान की प्रजातियों का चयन, बिचडा डालने आदि के बारे में भी बताया जायेगा. किसानों को खाद के उपयोग संबंधित जानकारी के साथ मौसम के सदुपयोग की भी जानकारी दी जायेगी.
अभिषेक पोद्दार हमेशा की तरह कल रात अपने अखबार के कार्यालय से काम निपटाकर अपने घर गया, जहां हम सभी रूममेट बैठकर रोज की तरह किसी मुद्दे पर बहस कर रहे थे, अचानक मैंने अपने एक साथी से पूछा यार फ्रीलांस रिपोर्टर को हिंदी में क्या कहेंगे उसने कहां स्वतंत्र पत्रकार, तभी तपाक से मेरे मुंह से निकल गया तो हम गुलाम पत्रकार हैं. उसने भी भरे मन से हामी भर दी. फिर क्या था हमसब इसी मुद्दे पर चर्चा करने लगे. दो दिनों पहले बोलहल्ला पर पत्रकारिता के बारे में मैंने जो भडास निकाली थी उसका कारण समझ में आने लगा. आज हकीकत तो यह है कि हम जिस मीडिया घराने से जुड जाते हैं उसके लिए एक गुलाम की भांति काम करने लगते हैं, हम अपनी सोच, अपने विचार और अपनी जिम्मेवारियों को उस मीडिया घराने के पास गिरवी रख देते हैं और सामने वाला व्यक्ति हमें रोबोट की तरह इस्तेमाल करने लगता है, हम उसकी धुन पर कठपुतलियों की तरह नाचना शुरू कर देते हैं. किसी को जलकर मरते देखकर हमारा दिल नहीं पसीजता, किसी की समस्याओं में हमें अपनी टॉप स्टोरी व ब्रेकिंग न्यूज नजर आती है, सच कहें तो शायद हमारी संवेदना ही मर चुकी हैं. शायद आज पूरी की...
Comments
घुघूती बासूती
डा. आरके सोहाने ने एक भर कहा, तो आपने अपने शीर्षक से उसे डेढ़ भर बना डाला।
किसानों की बल्ले-बल्ले कहने से पहले किसी किसान से तो बात कर ली होती।
फिलहाल तो बिहार के किसानों का कालाबाजारी में खाद खरीदने में कचूमर निकला जा रहा है। एनपीके, डीएपी आदि खादों के हरेक बोरे पर डेढ़ सौ से दो सौ रुपये अधिक कीमत वसूल की जा रही है।
पत्रकारिता को जनता की आवाज बनना चाहिये, अधिकारियों का भोंपू नहीं। कम से कम आप तो किसानों के साथ यह ज्यादती नहीं कीजिये। (अपने चिट्ठे के शीर्ष पर आपने एक गरीब बच्चे का फोटो लगा रखा है। किसान परिवारों के उचित पोषण व शिक्षा से वंचित वैसे ही बच्चों का तो ध्यान रखें।)