अभिषेक आदित्य
२००८ का पहला सवेरा। चारो तरफ मस्ती का माहोल था। सभी पिकनिक स्पॉट कि तरफ बढ़ रहे थे। हमने भी सभी का अनुकरण करते हुए उनके साथ चल दिए, रास्ते में मिलने वाले सभी ने हमे सादगी के साथ नए साल कि बधाई दी हमलोगों ने भी उसे स्वीकारा और उतनी ही सादगी से उसका जवाब दिया। तभी हमारी नज़र रास्ते में खडे एक बच्चे पर पड़ी। उसके शरीर पर ठंडे से बचने लायक कपडे भी नहीं थे. बच्चा हाथ फेलाकर वह हर आनेवाले से भीख मांगकर ऐसा तमाचा मार रहा था जिनके जमीर मर चुके थे। हम भले ही कितने शिक्षित हो जाएँ लेकिन न तो हम भीख देना बंद करेंगे और न ही मासूमों को दुत्कारना। जब खुश होंगे तो एकाध सिक्का देकर उस बच्चे पर अहसान कर देंगे। जब इस स्थिति को ख़त्म करने का मौका आयेगा तो ये कहकर पल्ला झाड़ लेंगे कि क्या मैंने ठेका ले रखा है। जनाब जब जवाबदारी नहीं ले सकते तो भीख देकर समाज का भविष्य तो खराब न करो। अगर आज इस बारे में न सोचा गया तो कल के अपराध मुक्त राष्ट्र कि परिकल्पना करना छोड़ दें। और नए साल का जश्न खुद के लिया हो सकता है, लेकिन समाज के लिए नहीं।
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