कुमार विवेक
सन् 2000 में जब बिहार को बांटकर झारखंड बनाया था तो झारखंड के हर आम आदमी को ये उम्मीद थी कि उन्हें एक बेहतर भविष्य मिलेगा। संसाधनों का विकास होगा, जीवन स्तर में सुधार होगा। झारखंड के साथ ही उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्से को अलग कर उत्तरांचल बनाया गया था जिसे बाद में उत्तराखंड नाम दे दिया गया। मध्य प्रदेश को बांट कर छत्तीसगढ बनाया गया था। सात साल बीत चुके हैं। इन सालों में झारखंड ने क्या पाया और कितना खोया इस बात पर चर्चा अब लाजमी हो गया है।
सन् 2000 में जब बिहार को बांटकर झारखंड बनाया था तो झारखंड के हर आम आदमी को ये उम्मीद थी कि उन्हें एक बेहतर भविष्य मिलेगा। संसाधनों का विकास होगा, जीवन स्तर में सुधार होगा। झारखंड के साथ ही उत्तर प्रदेश के पर्वतीय हिस्से को अलग कर उत्तरांचल बनाया गया था जिसे बाद में उत्तराखंड नाम दे दिया गया। मध्य प्रदेश को बांट कर छत्तीसगढ बनाया गया था। सात साल बीत चुके हैं। इन सालों में झारखंड ने क्या पाया और कितना खोया इस बात पर चर्चा अब लाजमी हो गया है।
नवर्निमित राज्यों उत्तराखंड और छत्तीसगढ से अगर झारखंड तुलना की जाये तो निराशा ही हाथ लगती है। कानून व्यवस्था, कृषि, शिक्षा, परिवहन, सूचना तकनीक, स्वास्थ्य हो या जीवन शैली हर मामले में झारखंड का प्रदर्शन कमतर रहा है। कानून व्यवस्था दिनोंदिन लचर होती जा रही है। माओवादियों का आतंक बढता ही जा रहा है। अब तक की सभी सरकारें उनपर काबू पाने में विफल रही है। झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने माओवादियों को समाज की मुख्यधारा से जोडने का एक प्रयास जरूर किया था पर उनके मुख्यमंत्री पद से हटते ही बात आयी गयी हो गयी। आंकड़े बताते हैं कि इन सालों में हत्या, अपहरण, बलात्कार एवं चोरी की घटनाओं में निरंतर वृद्धि हुई है। अब तक की सभी सरकारें इनसे निपटने में अक्षम रही हैं.
जब झारखंड बना था तो ऐसा सोचा गया था कि अपने अथाह खनिज संपदा के बल पर यहां औद्योगिक विकास चरम पर होगा। इस दिशा में कुछ प्रयास भी किये गये पर पर अब तक कोई सफलता हाथ नहीं लग पायी है। लगभग 43 औद्योगिक घरानों से 30000 करोड़ रुपये की परियोजना लगाने की सहमति बनी थी पर विभिन्न कारणों से सब के सब लटके पड़े हैं। उद्योगों के भू-अधिग्रहण एक बाधा के रूप में सामने आ रही है। निवेशों को आकर्षित करने के मामले में निराशा ही हाथ लगी है। कृषि के क्षेत्र में सुधार न के बराबर हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सफलता हाथ लगी है। स्कूल न जाने वाले बच्चों का प्रतिशत 54 से घटरकर 44 हो गया है. पर केवल इतने भर से ही संतोष नहीं किया जा सकता. मध्याहन भोजन योजना में लगातार गड़बड़ी की शिकायतें आ रही हैं.
स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए सुधार के लिए सरकार बजट तो बना रही है पर जाने किन कारणों से धरातल पर कोई बड़ा परिवर्तन देखने को नहीं मिल रहा है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक कुपोषण के कारण 0-5 साल के सबसे अधिक बच्चों की मौत बिहार और झारखंड में ही होती है। फिर यह कैसे माना जा सकता है कि सरकार स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के प्रति गंभीर हैं।
कुल मिलाकर यह माना जा सकता है है कि जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए झारखंड निर्माण का सपना देखा गया था। झारखंड बनने के 7 साल बाद भी उनका सच होना तो दूर उन्हें साकार करने की दिशा में ठोस प्रयास भी यहां के रहनुमाओं ने नहीं किये हुए हैं। आदिवासियों के बीच से झारखंड को चार मुख्यमंत्री मिले पर उनकी दशा जस की तस बनी हुई है। ऐसा क्यों है, क्यों प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर यह क्षेत्र आज भी बदहाली का दंश झेल रहा है इसका जवाब उन राजनेताओं ने मांगना आज समय की मांग बन गया है जो प्रदेश और जनता की चिंता छोड़ अपनी गद्दी बचाने की जोड़-तोड़ में जी-जान से जुटे हैं.
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