Skip to main content

आदिवासियों का धर्म

साभारः वनबन्‍धु (असम के पूर्व राज्‍यपाल के सलाहकार श्री पी.एन. लूथरा द्वारा लिखित यह आलेख वनबन्‍धु के सितंबर-अक्‍टूबर, 1981 अंक में प्रकाशित हुआ था. यह आलेख आदिवासी और धर्म के प्रति उनकी निष्‍ठा से संबंधित हमें कई महत्‍वपूर्ण जानकारी उपलब्‍ध कराता है. आईये जानते हैं कि धर्म को किस रूप में लेता है हमारा आदिवासी समाज)
चिरकाल से यह मान्‍यता रही है कि धर्म की उत्‍पत्ति सभ्‍यता से हुई है और तथा‍कथित आदिम जातियों का कोई धर्म न था. यह धारणा तब तक बनी रही, जब ई.बी. टेलर ने वनवासी समाजों के धर्मों के संबंध में अनुसंधान करके उसे गलत सिद्ध नहीं किया.
प्राचीन मानव का धर्म केवल यही था कि वह अलौकिक या दैवी शक्तियों में विश्‍वास करता था. वह दो प्रकार के दैवी जीव मानता था - सौम्‍य और क्रूर. सौम्‍य देवताओं के लिए वह कृतज्ञता प्रकट करता था और क्रूर देवताओं को प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के पूजा-पाठ और अनुष्‍ठान करता था.
वनवासी सामाजों के धर्म की चार विशेषतायें हैं. पहली विशेषता उनके नैतिक व्‍यवहार की है. वनवासी अपनी जाति से बाहर किसी के लिए नैतिक दायित्‍व की भावना नहीं रखते. दैवी शक्तियों से वे इस प्रकार प्रार्थना करते हैं- हमारा परिवार फूले-फले, हमारी फसलें बढे आदि. कभी-कभी तो उनका नैतिक दायित्‍व अपने तक ही सीमित रह जाता है. वे प्रार्थना करते समय कहते हैं- मैं जीतिव रहूं, शत्रु को ढूंढ निकालू, उससे न डरूं, उसे सोता हुआ पा लूं और बहुतों-सों को मार डालूं. इसके विरुद्ध , संगठित धर्म धीरे-धीरे सर्वजनीन नैतिक उत्तरदायित्‍व के सिद्धांत को मानने लगे हैं. महात्‍मा गांधी अपनी प्रार्थना सभा में जो भजन गाया करते थे उसमें सर्वशक्तिमान परमात्‍म से सबको सुबु‍द्धि देने की प्रार्थना किया करते थे- सबको सन्‍मति दे भगवान्.
वनवासियों के धार्मिक विचार की दूसरी विशेषता यह है कि वे विश्‍वव्‍यापी बहुदेववाद में विश्‍वास करते हैं. वनवासी प्रकृति के हर रूप को अलग-अलग समझते हैं और यह विश्‍वास करते हैं कि उसमें एक शक्ति रहती है. इस प्रकार वे अनेक शक्तियों में विश्‍वास करने लगते हैं और यह समझते हैं कि ये ही शक्तियां पृथ्‍वी पर उनके जीवन को संतुलित करतीं हैं. वे यह कल्‍पना नहीं करते कि समस्‍त विश्‍व में एक ही शक्ति व्‍याप्‍त है. इसके विपरीत, आधुनिक धर्म विज्ञान एक ही ईश्‍वर की सत्ता मानता है.
वनवासी धर्म की तीसरी विशेषता यह है कि वे आत्‍मा को भौतिक या आधा भौतिक समझते हैं. वे मानते हैं कि श्‍वास ही आत्‍मा है, जो मनुष्‍य को जीवित रखती है और प्रत्‍यक्ष देखी जा सकती है. संगठित धर्म आत्‍मा को अभौतिक, अदृश्‍य, पर सत्‍य मानता है. वनवासी धर्म की चौथी चौथी विशेषता यह है कि वे अपनी स्‍वाभाविक इच्‍छाओं की पूर्ति को ही सुख समझते हैं, दूसरों के सुख की उन्‍हें कोई चिन्‍ता नहीं. इस प्रकार उनका धार्मिक विचार केवल भावना के स्‍तर तक ही पहुंचता है और व्‍यक्ति तक ही सीमित रहता है. इसके विपरीत, संगठित धर्म दूसरों के सुख को ही मनुष्‍य का सच्‍चा सुख मानते हैं.
यहां वनवासी धम्र और आधुनिक धर्म की तुलना करना उद्देश्‍य नहीं है. केवल यह याद रखना है कि मानव जीवन के अन्‍य विभागों की भांति धर्म को भी विकास की कई अवस्‍थाओं से धैर्य के साथ हमें प्रतीक्षा करनी होगी कि बाहर के मनुष्‍यों, मशीनों और नाना प्रकार की चीजों संपर्क में आने से उनके सोचने समझने और रहन-सहन में परिवर्तन आना स्‍वाभाविक है, जैसा कि हम सभी में आया है. बाहरी व्‍यक्ति को उन पर अपनी आस्‍थाओं, दर्शन और जीवन पद्धति को बलात् लादने का कोई अधिकार नहीं, बल्कि हमें ढूंढने होंगे समान संस्‍कृति और जीवन के वे कोम सूत्र जो हमें और उन्‍हें आज भी कभी दृश्‍य और कभी अदृश्‍य रूप से बांधे हुए हैं. यदि हम एक दम उनके भोजन, वस्‍त्रों, रीति-रिवाजों और यहां तक कि उनकी कुरीतियों और अंधविश्‍वासों को दो टूक बुरा कहेंगे तो उन्‍हें निश्‍चय ही बुरा लगेगा और यह उनके क्रोध औश्र विद्रोह का कारण भी बन सकता है. ठीक इसके विपरीत यदि हमने उनके जीवन और समाज की बातों की या उनकी आदतों आदि की बनावटी प्रशंसा की तो उससे भी उतनी ही अशोभनीय और हास्‍यास्‍पद् प्रतिक्रिया होगी. अरुणाचल में नियुक्‍त एक हिन्‍दी अध्‍यापक का उदाहरण देना चाहूंगा. इस विचार को उनके उपर के अधिकारियों ने सिखा-पढाकर भेजा था कि वह आदिवासियों की वेश-भूषा और रहन-सहन आदि के बारे में कोई टीका-टिप्पणी न करे बल्कि उनकी हर चीज की प्रशंसा करे. तो उसने वैसा ही किया. वह अक्‍सर अपनी कक्षा में वनवासियों की वेश-भूषा की प्रशंसा करता और विद्यार्थियों से उसी के पहनने पर जोर देता. एक दिन अचानक एक विद्यार्थी खड़ा होकर बोला – सर आपकी भी तो अपनी कोई वेश-भूषा होगी. आप उसे छोड़कर यह पैंट-कमीज पहनकर क्‍यों आते हैं और हमें क्‍यों पैंट आदि पहनने से मना करते हैं. बेचारे अध्‍यापक के पास कोई जवाब नहीं था.
इसकी प्रकार एक घटना पोर्ट-ब्‍लेयर (अंडमान) की है. एक बार एक बहुत धनी युरोप वासी व्‍यक्ति वहां के नृवंश सर्वेक्षण विभाग के संग्रहालय में गया और वहां के अधिकारी को एक ब्‍लैंक चेक देकर बोला कि इस पर चाहे जितना रुपया लिखा दीजिए और मुझे एक निकोबारी टोकरी बनवा कर दे दीजिए. निकोबारी टोकरियां आकर्षक बनी होती हैं और उनमें कई खाने होते हैं. इस अधिकारी ने एक निकोबारी युवक से जब एक टोकरी लाने को कहा तो वह बिगड़कर बोला आप यह कैसे जानते हैं कि इन्‍हें हम ही बनाते हैं. आपने जो ये कपड़े पहन रखे हैं इनको आप संग्रहालय में क्‍यों नहीं रख लेते.
उसके ये शब्‍द आंख खोलने वाले हैं. अतः हमें उनसे श्रेष्‍ठ होने का अहम् और उनके लिए कुछ करने का बड़प्पन त्‍याग देना चाहिए.

Comments

इस लेख के लिए शुक्रिया, काफी नई जानकारी मिली

Popular posts from this blog

10 Facts about Netaji Subhash Chandra Bose we must know

Gandhi Ji & Netaji together in 1938. Ne taji Subhas Chandra Bose was an Indian nationalist whose defiant patriotism made him a hero among Indian’s. Let’s have some basic facts about him. 1.      Netaji was born on 23 January 1897 at Cuttak, Orrissa Divison of Bengal Provice of    British India. He was died in a plane crash Taipei Japan on August 18 1945 at the age  of 48. 2.       Jankinath Bose & Prabhawati Bose was his Parents. 3.      He becomes congress president in 1938 & 1939. Due to differences with Gandhi Ji,  Nehru & other top congress leaders he was ousted from congress in the year 1939. 4.      He was placed under house arrest by the British before escaping from India in 1940

HP's 1st Android All-in-One Business Desktop ready to go

Let's see what company say for this product. The Slate21 Pro AiO is HP’s First Android All-In-One Business Desktop : Odds are your workforce is running around with SOME kind of Android device. It could be the smartphone they are checking between meetings – or a tablet when they are on the road. Now what if I told you a business-ready Android desktop is now available? Well, we introduced the groundbreaking-and-powerful Slate21 late last year. Now, it’s ready to get down to business. Enter the business-focused Slate21 Pro.

कब तक लूटती रहेगी नारी

संदर्भ - आदिवासी युवती के साथ दुष्‍कर्म सरोज तिवारी नारी सर्वत्र् पूज्‍यते यानी नारी की सभी जगह पूजा होती है. भारत उसे देवी की संज्ञा दी गयी है. इसके बाद भी हमारे देश में, राज्‍य में, शहर में और गांवो में नारी शो‍षित व पीडित हैं. आज तो नारी सर्वत्र लूटती नजर आ रही है. ऐसी बात नहीं है कि आज के पहले नारी नहीं लूटी व शोषित हुई हो, सबसे शर्म की बात तो यह है कि हर बार नारी शोषित व सुर्खियां बनती है. इसके बाद भी हमारे समाज के लोगों की नींद नहीं खुलती है. खुलेगी भी कैसे. नारियों का शोषण भी तो हमारे समाज के लोगों में से ही किसी द्वारा होता है. इसके बाद शुरू होता है नाम कमाने की वकालत, छूटभैये नेता से लेकर सामाजिक संगठनों के लोग इसके खिलाफ प्रदर्शन करते है. नेताओं द्वारा वोट लेने के लिए इस मामले को विधानसभा में भी उठाया जाता है. हर बार की तरह इस बार भी जांच और कार्रवाई का अश्‍वासन मिल जाता है. इसके बाद यह अध्‍याय समाप्‍त हो जाता है. इस बार भी यही हुआ. इस बार इस घटना की शिकार नाम कमाने की चाहत लेकर दिल्‍ली गयी और फिर दिल्‍ली से अपने गांव लौट रही एक युवती हुई है. उसके साथ रांची में पिठोरिया से ले