सचिन गुप्ता
कांग्रेसी अल्टीमेटम के ड्रामे के बाद अब बारी बाबू शो की है. भय, भूख और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का नारा देकर झाविमो का गठन करने वाले श्री बाबू लाल मरांडी को वैसे तो सूबे के विकास पुरुष के रूप में जाना जाता है. लेकिन इस रैली के मायने जनहित में कम व्यक्तिगत ज्यादा लगते हैं. परिवर्तन रैली के बहाने पहली बार श्री मरांडी अपनी ताकत का प्रदर्शन भी करना चाहते हैं और यह भी जताना चाहते हैं कि भले बीजेपी उन्होंने छोड़ दी है लेकिन उनकी छवि अब भी उस कद्दावर नेता की है जिसके बिना प्रदेश का कामकाज नहीं चलने वाला. या यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि वे साफ तौर पर जता देना चाहते हैं कि झारखंड में सरकार की बागडोर थामने वाला उनसे बेहतर विकल्प अब भी किसी पार्टी के पास नहीं है. भले उन्होंने भाजपा के बागी विधायकों का हाथ थामा हो लेकिन कहीं न कहीं उनकी रैली बिहार में लालू की चेतावनी रैली और पासवान की रैली से प्रेरित लगती है. इसके पीछे के कारण भी स्पष्ट हैं कि जिस प्रकार कुशासन और कानून व्यवस्था के खिलाफ लालू ने बिहार में अपनी ताकत का अहसास कराना चाहा और यह बताना चाहा कि सत्ता चली गयी तो क्या सामोसे में आलू और बिहार में लालू वाली कहावत उनके पक्ष में अब भी बरकरार है. लेकिन लालू जी ने रैली से खुद ही मुसीबत मोल ले ली. विशेषज्ञों और राजनीति के जानकारों ने तो रैली के बारे में यहां कह दिया कि लालू को अपने ही गढ में खुद पर विश्वास नहीं सो उन्होंने खुद को परखने के लिए ऐसे हथकंडों का सहारा लिया. वहीं पासवान ने भी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी से मुकाबला करने के लिए रैली कर डाली. दोनों ही नेताओं को हासिल कुछ नहीं हुआ. हां, एक चीज जरूर हासिल हुई वह यह कि सत्ता से दूर होने के बाद पासवान और लालू बिहार में अपनी स्थिति की समीक्षा और आगे की तैयारी की दिशा जरूर तय कर ली. वहीं माया मेमसाब का ध्यान भी रैलियों पर केन्द्रित है. मध्य प्रदेश में पैठ बढाने के लिए ग्वालियर में वे भाईचारा रैली कर चुकी हैं. वैसे उसके पहले भी उन्होंने करीब 100 करोड खर्च करके लखनउ में एतिहासिक रैली की थी. उनकी रैलियों का सिलसिला तो भी शुरू ही हुआ है. इसी क्रम में अगला पड़ाव भोपाल है जहां वे इसी महीने की दस तारीख को रैली करेंगी. वैसे पहले भी वे रैलियों का सहारा ले चुकी हैं, लेकिन उनके हिस्से में मध्य प्रदेश की एक चौथाई सीटें भी हाथ नहीं लगीं. इन्हीं सब का अनुसरण करते हुए धनबाद में कांग्रेस ने माकन के नेतृत्व में संकल्प रैली कर डाली. यह रैली उस समय की गयी जब कोड़ा सरकार के अल्टीमेटम के दिन खत्म होने वाले थे. रैली के दौरान ऐसा माहौल बनाया गया मानो सरकार के दिन लद गये और कांग्रेस समर्थन वापस ले लेगी. उसके बाद क्या हुआ, न तो सरकार गिरी और न ही कांग्रेस का शिगूफा काम आया. उपर से पूरे मामले में सरकार में शामिल राजद, झामुमो व अन्य सदस्यसों ने मिलकर कांग्रेस की जो किरकिरी की सो अलग. बाबू लाल मरांडी ने भी शायद इन सब मुद्दों के बारे में सोचकर ही रैली का फैसला लिया होगा. उन्हें भी शायद लगने लगा है कि कोड़ा सरकार के दिन गिनती के बचे हैं इसी के तहत उन्होंने रैली की योजना बना डाली. लेकिन इसके खतरे भी कम नहीं हैं. अगर सत्ता पक्ष को यह अहसास हो गया कि उनके बीच बयानबाजी और आपसी खींचतान से मरांडी या अन्य विपक्षी नेताओं की चांदी हो जायेगी तो ऐसे में फिर चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह एकजुट होने का प्रयास करेंगे. गौर करने वाली यह है कि न तो रैलियों से परिवर्तन हो रहा है और न ही गद्दी ही बदल रही है. हां अपनी उपस्थिति और विकल्प का अहसास जनता व अन्य को कराने का मौका जरूर मिल जाता है.
कांग्रेसी अल्टीमेटम के ड्रामे के बाद अब बारी बाबू शो की है. भय, भूख और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का नारा देकर झाविमो का गठन करने वाले श्री बाबू लाल मरांडी को वैसे तो सूबे के विकास पुरुष के रूप में जाना जाता है. लेकिन इस रैली के मायने जनहित में कम व्यक्तिगत ज्यादा लगते हैं. परिवर्तन रैली के बहाने पहली बार श्री मरांडी अपनी ताकत का प्रदर्शन भी करना चाहते हैं और यह भी जताना चाहते हैं कि भले बीजेपी उन्होंने छोड़ दी है लेकिन उनकी छवि अब भी उस कद्दावर नेता की है जिसके बिना प्रदेश का कामकाज नहीं चलने वाला. या यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि वे साफ तौर पर जता देना चाहते हैं कि झारखंड में सरकार की बागडोर थामने वाला उनसे बेहतर विकल्प अब भी किसी पार्टी के पास नहीं है. भले उन्होंने भाजपा के बागी विधायकों का हाथ थामा हो लेकिन कहीं न कहीं उनकी रैली बिहार में लालू की चेतावनी रैली और पासवान की रैली से प्रेरित लगती है. इसके पीछे के कारण भी स्पष्ट हैं कि जिस प्रकार कुशासन और कानून व्यवस्था के खिलाफ लालू ने बिहार में अपनी ताकत का अहसास कराना चाहा और यह बताना चाहा कि सत्ता चली गयी तो क्या सामोसे में आलू और बिहार में लालू वाली कहावत उनके पक्ष में अब भी बरकरार है. लेकिन लालू जी ने रैली से खुद ही मुसीबत मोल ले ली. विशेषज्ञों और राजनीति के जानकारों ने तो रैली के बारे में यहां कह दिया कि लालू को अपने ही गढ में खुद पर विश्वास नहीं सो उन्होंने खुद को परखने के लिए ऐसे हथकंडों का सहारा लिया. वहीं पासवान ने भी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी से मुकाबला करने के लिए रैली कर डाली. दोनों ही नेताओं को हासिल कुछ नहीं हुआ. हां, एक चीज जरूर हासिल हुई वह यह कि सत्ता से दूर होने के बाद पासवान और लालू बिहार में अपनी स्थिति की समीक्षा और आगे की तैयारी की दिशा जरूर तय कर ली. वहीं माया मेमसाब का ध्यान भी रैलियों पर केन्द्रित है. मध्य प्रदेश में पैठ बढाने के लिए ग्वालियर में वे भाईचारा रैली कर चुकी हैं. वैसे उसके पहले भी उन्होंने करीब 100 करोड खर्च करके लखनउ में एतिहासिक रैली की थी. उनकी रैलियों का सिलसिला तो भी शुरू ही हुआ है. इसी क्रम में अगला पड़ाव भोपाल है जहां वे इसी महीने की दस तारीख को रैली करेंगी. वैसे पहले भी वे रैलियों का सहारा ले चुकी हैं, लेकिन उनके हिस्से में मध्य प्रदेश की एक चौथाई सीटें भी हाथ नहीं लगीं. इन्हीं सब का अनुसरण करते हुए धनबाद में कांग्रेस ने माकन के नेतृत्व में संकल्प रैली कर डाली. यह रैली उस समय की गयी जब कोड़ा सरकार के अल्टीमेटम के दिन खत्म होने वाले थे. रैली के दौरान ऐसा माहौल बनाया गया मानो सरकार के दिन लद गये और कांग्रेस समर्थन वापस ले लेगी. उसके बाद क्या हुआ, न तो सरकार गिरी और न ही कांग्रेस का शिगूफा काम आया. उपर से पूरे मामले में सरकार में शामिल राजद, झामुमो व अन्य सदस्यसों ने मिलकर कांग्रेस की जो किरकिरी की सो अलग. बाबू लाल मरांडी ने भी शायद इन सब मुद्दों के बारे में सोचकर ही रैली का फैसला लिया होगा. उन्हें भी शायद लगने लगा है कि कोड़ा सरकार के दिन गिनती के बचे हैं इसी के तहत उन्होंने रैली की योजना बना डाली. लेकिन इसके खतरे भी कम नहीं हैं. अगर सत्ता पक्ष को यह अहसास हो गया कि उनके बीच बयानबाजी और आपसी खींचतान से मरांडी या अन्य विपक्षी नेताओं की चांदी हो जायेगी तो ऐसे में फिर चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह एकजुट होने का प्रयास करेंगे. गौर करने वाली यह है कि न तो रैलियों से परिवर्तन हो रहा है और न ही गद्दी ही बदल रही है. हां अपनी उपस्थिति और विकल्प का अहसास जनता व अन्य को कराने का मौका जरूर मिल जाता है.
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