संजय पांडे
झारखंड राज्य की स्थापना के सात वर्षों में राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुई, शिलान्यास हुए, परन्तु कहीं भी कोई कार्य प्रारंभ नहीं हो सका। कुर्सी के लिए, आवास के लिए, लालबत्ती के लिए मंत्रिमंडल में नित्य मारामारी हो रही है। किसे फुर्सत है, झारखंड का विकास करने की, झारखंडियों की सुख-सुविधा का। आज हम झारखंड स्थापना के और राजग सरकार के चार वर्ष के उपलब्धियों का लेखा-जोखा करते हैं तो एक बेबसी ही हाथ लगती है। सपने जो देखे गये वे साकार नहीं हो सके। विकास के जादुई आंकड़े फाइलों में दम तोड़ रहे हैं। राज्य में बेइमानी, भ्रष्टाचार, लूट, बेरोजगारी, उग्रवाद सुरसा की भांति मुंह बाये आज भी खड़ा है। घोषणाओं और शिलालेखों से झारखंड की इंच-इंच धरती फट गयी है, लेकिन यहां के सूखे, खेतों में पानी नहीं पटाया जा सका है। अपनी सुविधा के लिए मंत्रियों व विधायकों को जनहित के नाम पर भूखंड उपलब्ध कराने की कवायद हो रही है लेकिन भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध नहीं हो पा रही है। मंत्री कुछ सिखने व जानने के लिए विदेश जाने का तिकड़म लड़ा रहे हैं लेकिन किसी होनहार छात्र या छात्राओं को सरकारी खर्च पर विदेश भेजने की सुध नहीं है। वन विभाग की अपनी नियमावली के तहत झारखंड की सुदूरवर्ती खाने वर्षों से बंद पड़ी है। सैकड़ों ही नहीं, हजारों लोग बेरोजगार हो गये हैं, लेकिन सरकार इस समस्या का समाधान नहीं कर पा रही है। उग्रवाद पैर पसारता जा रहा है। 14 जिलों तक सिमटा रहने वाला उग्रवाद इन सात वर्षों में 18 जिलों में फैल चुका है। ट्रेन डकैती व सड़क डकैती से यहां की पूरी जनता त्रस्त है। राह चलना दुश्वार हो गया है। वर्ष 2004 में अनियमित बारिश से राज्य के कई जिले अकाल की चपेट में आ गये हैं। इनमें सबसे अधिक पलामू प्रभावित हुआ है। झारखंड ही ऐसी भूमि है, जहां किसी गांव में कुंआ बीस हजार में बनता है तो किसी गांव में 40 हजार में। अब यह तो अभिकर्ता व अभियंता ही जानें कि ऐसा क्यों होता है। इंदिरा आवास या वृद्धावस्था पेंशन में कमीशन लेने की बात जग जाहिर है। पांच लाख में बनने वाले स्कूल, पथ की प्राक्कलित राशि 15 से 20 लाख होती है कारण बताया जाता है कि उग्रवादियों को कमीशन बतौर लेवी देना पड़ता है, बिना कमीशन व लेवी दिये विकास का कोई कार्य झारखंड में नहीं होता। क्या यही है हमारे सपनों का झारखंड। सरकार को सब कुछ पता है लेकिन वह लाचार है। सरकार जब लगाम लगाना चाहती है, तो सिंहासन डोलने लगता है। यही कारण है कि रज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी चले गये, अर्जुन मुंडा का भी अपनी मजबूरी है। गरीबी, बेरोजगारी, शोषण, दमन, पुलिसिया जुल्म, अधिकारियों की घौंस से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। अलग झारखंड राज्य बनने के बाद भी यही सिलसिला जारी रहेगा, इसकी कल्पना झारखंडियों ने नहीं की थी। उस पर तुर्रा यह कि कुछ झारखंडी नेता बाहरी-भीतरी का नारा देकर लोगों को आपस में लड़वाने की साजिश कर रहे हैं।
झारखंड राज्य की स्थापना के सात वर्षों में राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुई, शिलान्यास हुए, परन्तु कहीं भी कोई कार्य प्रारंभ नहीं हो सका। कुर्सी के लिए, आवास के लिए, लालबत्ती के लिए मंत्रिमंडल में नित्य मारामारी हो रही है। किसे फुर्सत है, झारखंड का विकास करने की, झारखंडियों की सुख-सुविधा का। आज हम झारखंड स्थापना के और राजग सरकार के चार वर्ष के उपलब्धियों का लेखा-जोखा करते हैं तो एक बेबसी ही हाथ लगती है। सपने जो देखे गये वे साकार नहीं हो सके। विकास के जादुई आंकड़े फाइलों में दम तोड़ रहे हैं। राज्य में बेइमानी, भ्रष्टाचार, लूट, बेरोजगारी, उग्रवाद सुरसा की भांति मुंह बाये आज भी खड़ा है। घोषणाओं और शिलालेखों से झारखंड की इंच-इंच धरती फट गयी है, लेकिन यहां के सूखे, खेतों में पानी नहीं पटाया जा सका है। अपनी सुविधा के लिए मंत्रियों व विधायकों को जनहित के नाम पर भूखंड उपलब्ध कराने की कवायद हो रही है लेकिन भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध नहीं हो पा रही है। मंत्री कुछ सिखने व जानने के लिए विदेश जाने का तिकड़म लड़ा रहे हैं लेकिन किसी होनहार छात्र या छात्राओं को सरकारी खर्च पर विदेश भेजने की सुध नहीं है। वन विभाग की अपनी नियमावली के तहत झारखंड की सुदूरवर्ती खाने वर्षों से बंद पड़ी है। सैकड़ों ही नहीं, हजारों लोग बेरोजगार हो गये हैं, लेकिन सरकार इस समस्या का समाधान नहीं कर पा रही है। उग्रवाद पैर पसारता जा रहा है। 14 जिलों तक सिमटा रहने वाला उग्रवाद इन सात वर्षों में 18 जिलों में फैल चुका है। ट्रेन डकैती व सड़क डकैती से यहां की पूरी जनता त्रस्त है। राह चलना दुश्वार हो गया है। वर्ष 2004 में अनियमित बारिश से राज्य के कई जिले अकाल की चपेट में आ गये हैं। इनमें सबसे अधिक पलामू प्रभावित हुआ है। झारखंड ही ऐसी भूमि है, जहां किसी गांव में कुंआ बीस हजार में बनता है तो किसी गांव में 40 हजार में। अब यह तो अभिकर्ता व अभियंता ही जानें कि ऐसा क्यों होता है। इंदिरा आवास या वृद्धावस्था पेंशन में कमीशन लेने की बात जग जाहिर है। पांच लाख में बनने वाले स्कूल, पथ की प्राक्कलित राशि 15 से 20 लाख होती है कारण बताया जाता है कि उग्रवादियों को कमीशन बतौर लेवी देना पड़ता है, बिना कमीशन व लेवी दिये विकास का कोई कार्य झारखंड में नहीं होता। क्या यही है हमारे सपनों का झारखंड। सरकार को सब कुछ पता है लेकिन वह लाचार है। सरकार जब लगाम लगाना चाहती है, तो सिंहासन डोलने लगता है। यही कारण है कि रज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी चले गये, अर्जुन मुंडा का भी अपनी मजबूरी है। गरीबी, बेरोजगारी, शोषण, दमन, पुलिसिया जुल्म, अधिकारियों की घौंस से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। अलग झारखंड राज्य बनने के बाद भी यही सिलसिला जारी रहेगा, इसकी कल्पना झारखंडियों ने नहीं की थी। उस पर तुर्रा यह कि कुछ झारखंडी नेता बाहरी-भीतरी का नारा देकर लोगों को आपस में लड़वाने की साजिश कर रहे हैं।
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