सरोज तिवारी
नक्सलवाद आज हमारे देश में न केवल राजनीतिक बहस का मुद्दा बन गया है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व प्रशासनिक क्षेत्रों को भी प्रभावित कर रहा है. इन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. एक ओर हम तीव्र आर्थिक विकास के लिए कदम बढ़ा रहे हैं, जो 2020 तक हमें आर्थिक शक्ति बनाने में मदद देगा, वहीं दूसरी ओर नक्सलवाद जैसी समस्या परोक्ष रूप से इसमें बाधा उत्पन्न कर रही है. वैसे तो देश के कई राज्य नक्सलवाद की समस्या से प्रभावित हैं, लेकिन इस मामले में झारखंड की स्थिति काफी खराब है. यहां नक्सली हिंसा का दौर अभी भी जारी है. केन्द्र व राज्य सरकार के हमेशा आश्वासन के बाद भी हालात में कोई सुधार नहीं हो रहा है. नक्सलवाद की जड़े कितनी मजबूत हैं, इसका अंदाजा गिरिडीह के पारसनाथ पहाड़ी और पीरटांड़ पर हुए हमले से लगाया जा सकता है. इस घटना में दो पुलिसकर्मी शहीद हो गये. हालांकि इस घटना में एक नक्सली ढेर हुआ जबकि दो गिरफ्तार भी हुए हैं. इसे भले ही पुलिस अपनी सफलता मान रही हो, लेकिन सच तो यह है कि घटना के वक्त पुलिस बुरी तरह से घिर गयी थी. नक्सलियों के डेन पारसनाथ पहाड़ी को खाली कराने पहुंची पुलिस उस वक्त आफत में फंस गयी जब नक्सलियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया. दस घंटे में चार बार नक्सलियों व पुलिस के बीच मुठभेड़ हुई. इसमें पुलिस के दो जवान शहीद हो गये. गिरिडीह जिले की यह कोई पहली घटना नहीं है. यहजिला नक्सलियों का गढ़ माना जाता है. यहां नक्सलियों द्वारा इस तरह की घटनाओं को अंजाम देना आम बात होती जा रही है. वैसे तो पूरे राज्य में नक्सलियों का जाल बिछा हुआ है. पिछले वर्ष जमशेदपुर में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सुनील महतो की गोली मार कर हत्या कर कर दी गयी थी. इस घटना के बाद सरकार ने कहा था कि यह हमला नक्सलियों की हताशा भरी कार्रवाई है. इस मौके पर सभी उच्चाधिकारियों ने इस घटना को नक्सलियों की बौखलाहट भरी कार्रवाई बताया था. हो सकता है कि राज्य सरकार द्वारा चलाये जा रहे विशेष अभियानों ने नक्सली संगठनों को अपनी ताकत का एकसास कराने को उकसाया होगा. मगर यह तर्क हमें उस मंजिल तक नहीं ले जाता जिसके लिए सरकार को जवाबदेह होना चाहिए. झारखंड ही नहीं पूरे देश में नक्सलवाद के खात्मे के लिए केन्द्र सरकार अपनी वचनवद्धता दोहराती रही है. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में भी नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के प्रतिनिधियों की बैठकें हो चुकी हैं. पिछले 13 अप्रैल को नयी दिल्ली में नक्सल प्रभावित छह राज्य के सीएम जुटे थे. इसमें प्रधानमंत्री ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया था और इसे समाप्त करने के लिए साक्षा अभियान चलाने की बात कही थी. लेकिन इस अभियान को पूरी तरह से सफल नहीं कहा जा सकता है. हालांकि घटनाओं में थोड़ी कमी जरूर आयी है, लेकिन जितनी उम्मीद की जानी चाहिए शायद उतनी नहीं.
नक्सलवाद आज हमारे देश में न केवल राजनीतिक बहस का मुद्दा बन गया है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व प्रशासनिक क्षेत्रों को भी प्रभावित कर रहा है. इन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. एक ओर हम तीव्र आर्थिक विकास के लिए कदम बढ़ा रहे हैं, जो 2020 तक हमें आर्थिक शक्ति बनाने में मदद देगा, वहीं दूसरी ओर नक्सलवाद जैसी समस्या परोक्ष रूप से इसमें बाधा उत्पन्न कर रही है. वैसे तो देश के कई राज्य नक्सलवाद की समस्या से प्रभावित हैं, लेकिन इस मामले में झारखंड की स्थिति काफी खराब है. यहां नक्सली हिंसा का दौर अभी भी जारी है. केन्द्र व राज्य सरकार के हमेशा आश्वासन के बाद भी हालात में कोई सुधार नहीं हो रहा है. नक्सलवाद की जड़े कितनी मजबूत हैं, इसका अंदाजा गिरिडीह के पारसनाथ पहाड़ी और पीरटांड़ पर हुए हमले से लगाया जा सकता है. इस घटना में दो पुलिसकर्मी शहीद हो गये. हालांकि इस घटना में एक नक्सली ढेर हुआ जबकि दो गिरफ्तार भी हुए हैं. इसे भले ही पुलिस अपनी सफलता मान रही हो, लेकिन सच तो यह है कि घटना के वक्त पुलिस बुरी तरह से घिर गयी थी. नक्सलियों के डेन पारसनाथ पहाड़ी को खाली कराने पहुंची पुलिस उस वक्त आफत में फंस गयी जब नक्सलियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया. दस घंटे में चार बार नक्सलियों व पुलिस के बीच मुठभेड़ हुई. इसमें पुलिस के दो जवान शहीद हो गये. गिरिडीह जिले की यह कोई पहली घटना नहीं है. यहजिला नक्सलियों का गढ़ माना जाता है. यहां नक्सलियों द्वारा इस तरह की घटनाओं को अंजाम देना आम बात होती जा रही है. वैसे तो पूरे राज्य में नक्सलियों का जाल बिछा हुआ है. पिछले वर्ष जमशेदपुर में झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सुनील महतो की गोली मार कर हत्या कर कर दी गयी थी. इस घटना के बाद सरकार ने कहा था कि यह हमला नक्सलियों की हताशा भरी कार्रवाई है. इस मौके पर सभी उच्चाधिकारियों ने इस घटना को नक्सलियों की बौखलाहट भरी कार्रवाई बताया था. हो सकता है कि राज्य सरकार द्वारा चलाये जा रहे विशेष अभियानों ने नक्सली संगठनों को अपनी ताकत का एकसास कराने को उकसाया होगा. मगर यह तर्क हमें उस मंजिल तक नहीं ले जाता जिसके लिए सरकार को जवाबदेह होना चाहिए. झारखंड ही नहीं पूरे देश में नक्सलवाद के खात्मे के लिए केन्द्र सरकार अपनी वचनवद्धता दोहराती रही है. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में भी नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के प्रतिनिधियों की बैठकें हो चुकी हैं. पिछले 13 अप्रैल को नयी दिल्ली में नक्सल प्रभावित छह राज्य के सीएम जुटे थे. इसमें प्रधानमंत्री ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया था और इसे समाप्त करने के लिए साक्षा अभियान चलाने की बात कही थी. लेकिन इस अभियान को पूरी तरह से सफल नहीं कहा जा सकता है. हालांकि घटनाओं में थोड़ी कमी जरूर आयी है, लेकिन जितनी उम्मीद की जानी चाहिए शायद उतनी नहीं.
Comments
samrendrasharma.blogspot.com
इसलिए नक्सल आतंक पर नकेल कसा तो जरुर ही जाए पर यह भी सोचा जाए कि आखिर ऐसे वाद पनपते क्यों है।