अभिषेक पोद्दार
बिहार के औरगांबाद जिले के सीमावर्ती गांवों में रहने वाले लोगों के पास अब तक न तो कोई मूलभुत सुविधाएं मिली है और न ही किसी सरकारी विकास योजनाओं की जानकारी. उल्टे उनके पास जिला प्रशासन और सरकार की तरफ से एक तमगा मिला है वह है नक्सली होने का. गाहे बगाहे जिला प्रशासन उन्हें नक्सली घोषित करने की फिराक में लगा रहता है. यहां आपको बता दें कि औरगांबाद जिले के सीमावर्ती इलाकों में नक्सली की सामानांतर सरकार चलती है, वहां उनका आना जाना लगा रहता है, वे वहां खुलेआम अपनी पंचायत लगाते हैं. इस पचांयत में अगर किसी के नाम नक्सली फरमान जारी हो गया और वह पंचायत में नहीं आया तो फिर उसकी अगली मुलाकात फिर भगवान से ही होती है. लोगों को अपने परिवार व खुद की जान बचाने के लिए न चाहते हुए भी नक्सलियों का साथ देना पडता है. यहां साथ देने का मतलब है कि उन्हें आश्रय देना पडता है. अगर वह किसी दिन किसी गांव में आ गये तो वहां के लोगों को उनकी खातिरदारी करनी पडती है, उनके रहने की व्यवस्था करानी पडती है उन्हें भोजन कराना पडता है और उनका वह हर आदेश मानना पडता है चाहे वह आदेश कुछ भी क्यों न हो. यहां तक कि लोगों को मजबूरन अपनी बहू-बेटियों को भी उनके सामने परोसना पडता है. वहीं दूसरी तरफ नक्सलियों के जाने के बाद लोगों की रही सही कसर पुलिस प्रशासन पूरी कर देती है. उनके जाने के बाद वह जिसे चाहे गांव से उठा लेते हैं और उनकी जमकर पिटाई कर देते हैं साथ ही उनपर नक्सली का मुखबिरी होने के आरोप भी लगा देती है व नक्सली होने का मुहर लगा देते हैं. अब वह व्यक्ति भले चाहे कितना भी रो गा कर कह ले कि मैं नक्सली नहीं हूं, पुलिस प्रशासन को इससे कोई फर्क नहीं पडता वह तो सिर्फ अपना राग अलापते रहती है असली नक्सली को तो पकड नहीं सकती इन डरे, सहमे और सुशील गांव वालों को नक्सली घोषित कर जेल में ठूस देती है. यहां के निवासियों के सामने एक तरफ कुआं तो एक तरफ खाई वाली स्थिति है अगर वह पुलिस का साथ देते हैं तो नक्सली उन्हें नहीं छोडेंगे और नक्सली की गुलामी करने पर पुलिस. मजबूरन यहां के निवासियों को जिसमें अधिकतर युवा वर्ग शामिल है अपने गांव छोडकर जाने को मजबूर है अपने घर में कमाई का जरिया होते हुए भी दूसरे शहरों का पलायन कर रहे हैं. वहीं जिनका परिवार है उन्हें मजबूर होकर दोनों तरफ से गालियां सुननी पडती है. वहीं कई लोग तो मैं नक्सली नहीं हूं का प्रमाण देने की कोशिश में ही पुलिस की गोलियों का शिकार हो गये और इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
बिहार के औरगांबाद जिले के सीमावर्ती गांवों में रहने वाले लोगों के पास अब तक न तो कोई मूलभुत सुविधाएं मिली है और न ही किसी सरकारी विकास योजनाओं की जानकारी. उल्टे उनके पास जिला प्रशासन और सरकार की तरफ से एक तमगा मिला है वह है नक्सली होने का. गाहे बगाहे जिला प्रशासन उन्हें नक्सली घोषित करने की फिराक में लगा रहता है. यहां आपको बता दें कि औरगांबाद जिले के सीमावर्ती इलाकों में नक्सली की सामानांतर सरकार चलती है, वहां उनका आना जाना लगा रहता है, वे वहां खुलेआम अपनी पंचायत लगाते हैं. इस पचांयत में अगर किसी के नाम नक्सली फरमान जारी हो गया और वह पंचायत में नहीं आया तो फिर उसकी अगली मुलाकात फिर भगवान से ही होती है. लोगों को अपने परिवार व खुद की जान बचाने के लिए न चाहते हुए भी नक्सलियों का साथ देना पडता है. यहां साथ देने का मतलब है कि उन्हें आश्रय देना पडता है. अगर वह किसी दिन किसी गांव में आ गये तो वहां के लोगों को उनकी खातिरदारी करनी पडती है, उनके रहने की व्यवस्था करानी पडती है उन्हें भोजन कराना पडता है और उनका वह हर आदेश मानना पडता है चाहे वह आदेश कुछ भी क्यों न हो. यहां तक कि लोगों को मजबूरन अपनी बहू-बेटियों को भी उनके सामने परोसना पडता है. वहीं दूसरी तरफ नक्सलियों के जाने के बाद लोगों की रही सही कसर पुलिस प्रशासन पूरी कर देती है. उनके जाने के बाद वह जिसे चाहे गांव से उठा लेते हैं और उनकी जमकर पिटाई कर देते हैं साथ ही उनपर नक्सली का मुखबिरी होने के आरोप भी लगा देती है व नक्सली होने का मुहर लगा देते हैं. अब वह व्यक्ति भले चाहे कितना भी रो गा कर कह ले कि मैं नक्सली नहीं हूं, पुलिस प्रशासन को इससे कोई फर्क नहीं पडता वह तो सिर्फ अपना राग अलापते रहती है असली नक्सली को तो पकड नहीं सकती इन डरे, सहमे और सुशील गांव वालों को नक्सली घोषित कर जेल में ठूस देती है. यहां के निवासियों के सामने एक तरफ कुआं तो एक तरफ खाई वाली स्थिति है अगर वह पुलिस का साथ देते हैं तो नक्सली उन्हें नहीं छोडेंगे और नक्सली की गुलामी करने पर पुलिस. मजबूरन यहां के निवासियों को जिसमें अधिकतर युवा वर्ग शामिल है अपने गांव छोडकर जाने को मजबूर है अपने घर में कमाई का जरिया होते हुए भी दूसरे शहरों का पलायन कर रहे हैं. वहीं जिनका परिवार है उन्हें मजबूर होकर दोनों तरफ से गालियां सुननी पडती है. वहीं कई लोग तो मैं नक्सली नहीं हूं का प्रमाण देने की कोशिश में ही पुलिस की गोलियों का शिकार हो गये और इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
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