अभिषेक पोद्दार
हमेशा की तरह कल रात अपने अखबार के कार्यालय से काम निपटाकर अपने घर गया, जहां हम सभी रूममेट बैठकर रोज की तरह किसी मुद्दे पर बहस कर रहे थे, अचानक मैंने अपने एक साथी से पूछा यार फ्रीलांस रिपोर्टर को हिंदी में क्या कहेंगे उसने कहां स्वतंत्र पत्रकार, तभी तपाक से मेरे मुंह से निकल गया तो हम गुलाम पत्रकार हैं. उसने भी भरे मन से हामी भर दी. फिर क्या था हमसब इसी मुद्दे पर चर्चा करने लगे. दो दिनों पहले बोलहल्ला पर पत्रकारिता के बारे में मैंने जो भडास निकाली थी उसका कारण समझ में आने लगा. आज हकीकत तो यह है कि हम जिस मीडिया घराने से जुड जाते हैं उसके लिए एक गुलाम की भांति काम करने लगते हैं, हम अपनी सोच, अपने विचार और अपनी जिम्मेवारियों को उस मीडिया घराने के पास गिरवी रख देते हैं और सामने वाला व्यक्ति हमें रोबोट की तरह इस्तेमाल करने लगता है, हम उसकी धुन पर कठपुतलियों की तरह नाचना शुरू कर देते हैं. किसी को जलकर मरते देखकर हमारा दिल नहीं पसीजता, किसी की समस्याओं में हमें अपनी टॉप स्टोरी व ब्रेकिंग न्यूज नजर आती है, सच कहें तो शायद हमारी संवेदना ही मर चुकी हैं. शायद आज पूरी की पूरी पत्रकारिता इस समस्या से ग्रसित है. आज के मीडिया घराने अपने पत्रकारों का इस्तेमाल अपनी पूंजी की सेवा के लिए कर रहे हैं, आज घटनाओं की महत्त्ता गौण हो गई है और व्यवसायिता हावी हो गई है. किसी मामले को मसाला बनाकर कितने पैसे कमाये जाये आज इस बात को प्राथमिकता दी जाने लगी है. यही कारण है कि हम आम लोगों के सामने कुछ भी परोसते समय यह देखना मुनासिब नहीं समझते कि इसमें सच कितना है और झूठ कितना. इसे परोसने पर सामने वाले पर क्या प्रभाव पडेगा इसकी तो बात ही छोडिये इसकी कल्पना करना भी हमें गंवारा नहीं. कोई जिगरवाला पत्रकार अगर इन मुद्दों पर आवाज उठाना भी चाहे तो उसे या तो अपनी नौकरी से हाथ धोना पडता है या अपने दफ्तर में उसे ऐसी जगह बैठा दिया जाता है जहां उसके लिए करने को कुछ नहीं होता थक हारकर उसे अपने आप को गुलामी के मापदंडों पर खरा उतारना ही पडता है. सच्चाई यह है कि आज पत्रकारिता जगत जिस रफ्तार से गर्त की ओर जा रही है उसका कोई ओर-छोर नहीं है. हर खबर पर विज्ञापन हावी है जिसका प्रमाण मेरे जैसे पत्रकारों को प्रत्येक दिन देखने को मिल ही जाता है. अपने दफ्तर में प्रवेश करते ही अपने पेज के लिए विज्ञापन की डमी मिल जाती है. मुद्दे भले ही छूट जाये पर अगर किसी विज्ञापन पर एक इंच भी कैंची चली तो विज्ञापन प्रभारी की तो छोडिये उपसंपादक से लेकर पेज ऑपरेटरों पर तक गाज गिरनी तय है. कारण विज्ञापन पैसा देता है, पैसे से पूंजी बनती है, पूंजी बाजार में बरकरार रखता है इसलिए यह स्वामी है. फिर हम गुलाम पत्रकारों के लिए करने को कुछ बचता ही कहां है.
हमेशा की तरह कल रात अपने अखबार के कार्यालय से काम निपटाकर अपने घर गया, जहां हम सभी रूममेट बैठकर रोज की तरह किसी मुद्दे पर बहस कर रहे थे, अचानक मैंने अपने एक साथी से पूछा यार फ्रीलांस रिपोर्टर को हिंदी में क्या कहेंगे उसने कहां स्वतंत्र पत्रकार, तभी तपाक से मेरे मुंह से निकल गया तो हम गुलाम पत्रकार हैं. उसने भी भरे मन से हामी भर दी. फिर क्या था हमसब इसी मुद्दे पर चर्चा करने लगे. दो दिनों पहले बोलहल्ला पर पत्रकारिता के बारे में मैंने जो भडास निकाली थी उसका कारण समझ में आने लगा. आज हकीकत तो यह है कि हम जिस मीडिया घराने से जुड जाते हैं उसके लिए एक गुलाम की भांति काम करने लगते हैं, हम अपनी सोच, अपने विचार और अपनी जिम्मेवारियों को उस मीडिया घराने के पास गिरवी रख देते हैं और सामने वाला व्यक्ति हमें रोबोट की तरह इस्तेमाल करने लगता है, हम उसकी धुन पर कठपुतलियों की तरह नाचना शुरू कर देते हैं. किसी को जलकर मरते देखकर हमारा दिल नहीं पसीजता, किसी की समस्याओं में हमें अपनी टॉप स्टोरी व ब्रेकिंग न्यूज नजर आती है, सच कहें तो शायद हमारी संवेदना ही मर चुकी हैं. शायद आज पूरी की पूरी पत्रकारिता इस समस्या से ग्रसित है. आज के मीडिया घराने अपने पत्रकारों का इस्तेमाल अपनी पूंजी की सेवा के लिए कर रहे हैं, आज घटनाओं की महत्त्ता गौण हो गई है और व्यवसायिता हावी हो गई है. किसी मामले को मसाला बनाकर कितने पैसे कमाये जाये आज इस बात को प्राथमिकता दी जाने लगी है. यही कारण है कि हम आम लोगों के सामने कुछ भी परोसते समय यह देखना मुनासिब नहीं समझते कि इसमें सच कितना है और झूठ कितना. इसे परोसने पर सामने वाले पर क्या प्रभाव पडेगा इसकी तो बात ही छोडिये इसकी कल्पना करना भी हमें गंवारा नहीं. कोई जिगरवाला पत्रकार अगर इन मुद्दों पर आवाज उठाना भी चाहे तो उसे या तो अपनी नौकरी से हाथ धोना पडता है या अपने दफ्तर में उसे ऐसी जगह बैठा दिया जाता है जहां उसके लिए करने को कुछ नहीं होता थक हारकर उसे अपने आप को गुलामी के मापदंडों पर खरा उतारना ही पडता है. सच्चाई यह है कि आज पत्रकारिता जगत जिस रफ्तार से गर्त की ओर जा रही है उसका कोई ओर-छोर नहीं है. हर खबर पर विज्ञापन हावी है जिसका प्रमाण मेरे जैसे पत्रकारों को प्रत्येक दिन देखने को मिल ही जाता है. अपने दफ्तर में प्रवेश करते ही अपने पेज के लिए विज्ञापन की डमी मिल जाती है. मुद्दे भले ही छूट जाये पर अगर किसी विज्ञापन पर एक इंच भी कैंची चली तो विज्ञापन प्रभारी की तो छोडिये उपसंपादक से लेकर पेज ऑपरेटरों पर तक गाज गिरनी तय है. कारण विज्ञापन पैसा देता है, पैसे से पूंजी बनती है, पूंजी बाजार में बरकरार रखता है इसलिए यह स्वामी है. फिर हम गुलाम पत्रकारों के लिए करने को कुछ बचता ही कहां है.
Comments
bahut badhiya.....
मदन देवासी ( बोस्तर ) सरनाउ जालोर )