राजीव उपाध्याय
इस देश को धर्मों में मत बांटो, इस देश को फसादों में मत बांटो
एक सागर सा है अपना देश, इसे झीलों-तलाबों में मत बांटो... मशहूर शायर इकबाल ने ये पंक्तियां देश की एकता का संबल देती हैं, लेकिन आज हमारे देश के राजनेताओं को क्या हो गया है कि वो अपनी जुबान से देश को लगातार तोडने की भाषा बोल रहे हैं. जी हां यहां हम बात कर रहे हैं शिवसेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे और उनके भतीजे महाराष्ट्र नवनिर्माण पार्टी के सुप्रीमो राज ठाकरे जी की. अभी कुछ ही दिन बीते हैं जब मनसे सुप्रीमो राज ठाकरे ने यह बयान देकर पूरे देश को क्षेत्रवाद और भाषावाद के नाम पर विडंखित करने का प्रयास किया. उनका यह बयान कि बिहारियों और उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए महाराष्ट्र में कोई जगह नहीं है. इसके बाद पूरे बिहार और उत्तर प्रदेश के बुद्विजीवियों के बीच राज ठाकरे को लेकर चहुंओर आलोचना का दौर चला. मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र से होते हुए बंगाल तक में बवाल मचा. इसके बदले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने बिहार का अपमान होते देख जवाबी हमला भी किया. उन्होंने यहां तक चुनौती दे डाली कि मुंबई में बिहारियों को रहने की बात तो दूर अगली बार हम सूर्योपासना पर्व छठ भी महाराष्ट्र की धरती पर महाराष्ट्र नविनिर्माण पार्टी के सामने मनाएंगे. इस वाकयुद्ध् को कहीं से भी शोभनीय नहीं कहा जा सकता है. पूरे देश को ज्ञान और हुनर का पाठ पढाने वाला बिहार ही है, शायद शिवसेना सु्प्रीमो बाला साहेब को जानकारी नहीं है कि पूरे ज्ञान का पाठ पढाने वाला स्थान बिहार का नालंदा विश्वविघालय रहा है. यहीं से प्राचीन और मध्यकालीन सहित आधुनिक काल के लोगों ने ज्ञान लाभ लेकर ख्याति पायी है. आज फिर बाला साहेब ठाकरे का अपने अखबार में यह छपवाकर कि बिहार के सांसद गोबर के कीडे हैं. अपनी ओछी मानसिकता का परिचय दे रहे हैं. साथ ही उम्र के साथ सठियाने का संकेत भी. हो सकता है कि कुछ नेता अपनी भडास मिटाने के लिए लफफाजी भी करें. सस्ती लोकप्रियता पाने का भी प्रयास करें. वसुधैव कुटुंबकम की भावना रखने वाले देश को चाहिए कि ऐसे मौकापरस्त और भडकाउ लोगों की बयानबाजी से बचते हुए आपसी भाइचारे की डोर को और मजबूत करें. साथ में दिखा दें कि ओछी मानसिकता या थोथी राजनीति करने वालों के लिए किसी भी राज्य के नागरिक के मन में सिबाय धिक्कारने के और कोई स्थान नहीं है.
अभिषेक पोद्दार हमेशा की तरह कल रात अपने अखबार के कार्यालय से काम निपटाकर अपने घर गया, जहां हम सभी रूममेट बैठकर रोज की तरह किसी मुद्दे पर बहस कर रहे थे, अचानक मैंने अपने एक साथी से पूछा यार फ्रीलांस रिपोर्टर को हिंदी में क्या कहेंगे उसने कहां स्वतंत्र पत्रकार, तभी तपाक से मेरे मुंह से निकल गया तो हम गुलाम पत्रकार हैं. उसने भी भरे मन से हामी भर दी. फिर क्या था हमसब इसी मुद्दे पर चर्चा करने लगे. दो दिनों पहले बोलहल्ला पर पत्रकारिता के बारे में मैंने जो भडास निकाली थी उसका कारण समझ में आने लगा. आज हकीकत तो यह है कि हम जिस मीडिया घराने से जुड जाते हैं उसके लिए एक गुलाम की भांति काम करने लगते हैं, हम अपनी सोच, अपने विचार और अपनी जिम्मेवारियों को उस मीडिया घराने के पास गिरवी रख देते हैं और सामने वाला व्यक्ति हमें रोबोट की तरह इस्तेमाल करने लगता है, हम उसकी धुन पर कठपुतलियों की तरह नाचना शुरू कर देते हैं. किसी को जलकर मरते देखकर हमारा दिल नहीं पसीजता, किसी की समस्याओं में हमें अपनी टॉप स्टोरी व ब्रेकिंग न्यूज नजर आती है, सच कहें तो शायद हमारी संवेदना ही मर चुकी हैं. शायद आज पूरी की...
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